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आहटों के अर्थ

सीमा अग्रवाल

प्रकाशक : शारदेय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16221
आईएसबीएन :9788194842323

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नवगीत संग्रह

तूफानी लहरों पर बह कर
हमने तट के गीत लिखे हैं

घर परिवार की खुशहाली के लिए तुलसी चौरे पर जल चढ़ाती, व्रत उपवास मनाती, रात-दिन शुभ शगुन न्यौतती स्त्री को खुद के जीवन के लिए किसी शुभ शगुन की कामना करना कर पाने की अनुमति समाज ने कभी नहीं दी। कर्तव्यों के बरक्स अधिकारों का स्वप्न मात्र, पूरे परिवार को हिला कर रख देता है। स्वयं को परिवार के हवन कुंड में समिधा सी समर्पित करती स्त्री जब सवाल करती है तो उसकी झोली प्रश्नों से भर दी जाती है। ऐसे में किसी रचनात्मकता हेतु कदम बढ़ा पाना कितना दुष्कर कार्य है यह समझ पाना मुश्किल नहीं। मुझ जैसी जाने कितनी महिलायें जो आर्थिक रूप से पूर्णतः परतंत्र हैं, जब 50 वर्ष की उम्र के बाद घर से बाहर निकलने का साहस जुटाती हैं, कुछ कर गुजरने की तमन्ना संजोती हैं तब अचानक ही एक अनुभव से गुजरती हैं जो स्तब्धकारी होता है। खाली हाथ, खाली मन व अनजान परिवेश के बीच वो खुद को नितांत अकेला पाती हैं। फिर भी घर में दौड़ दौड़ कर सबके काम करती खुद की सुध बुध भूल घर में साधारण से कपड़ों में फिरने वाली जब अचानक ही सज-संवर कर आत्मविश्वास के साथ अजनबी भीड़ का सामना करती दिखती है तो हजार हजार संदेह झूठी मुस्कराहट के पीछे से फिल्टर हो कर बाहर आते दिखायी देते हैं। ऐसे दोगले समाज का सामना करती मेरी कई रचनाकार मित्रों के बीच मैं भी खुद को खड़ा पाती हूँ। मेरी पिछली दोनों किताबों के आत्मकथ्य से इस तीसरी किताब का आत्मकथ्य बहुत भिन्न है। इसमें मेरी काव्य यात्रा का वो सच है जो मैंने भोगा है, मेरी तमाम साथी रचनाकार मित्रों ने अनुभव किया है। ये प्रथा अनंतकाल से चली आ रही है और शायद अनंतकाल तक चलेगी। पिछली दोनों किताबों में शामिल गीतों से बिल्कुल भिन्न परिवेश में पनपे हैं इस बार के गीत। एक ऐसा भावनात्मक परिवेश जहां में शुद्ध गृहस्थन के साथ-साथ एक साहित्यकार, एक रचनाकार होने की दिशा में कदम बढ़ा चुकी थी और परिजनों के प्रश्नों से घिरी लगभग अकेली खड़ी थी। इतना सब कुछ स्वीकार करने के लिए साहस नहीं बल्कि सत्य की पक्षधरता चाहिए और इसी पक्षधरता की मैं पक्षधर रही हूँ। यही सत्य मैं चुनती रही हूँ, अपने गीतों के लिए, दृढ़ता के साथ सो अब स्वयं के लिए चुन रही हूँ। क्षुब्ध हूँ, क्रोधित हूँ, समाज के इस चलन से, जिसमें स्त्रियाँ जब-जब स्वयं के लिए सूरज चुनती हैं तब-तब संदेहों और आक्षेपों के तमाम बादल उभर जाते हैं। त्याग की प्रतिमूर्ति बने रहने में ही उसकी श्रेष्ठता निहित है और ये श्रेष्ठता उसके लिए वैकल्पिक नहीं बल्कि अनिवार्य है, पुरस्कार नहीं बल्कि दंड है।

चुनौतियों की संख्या सिर्फ चौखट भीतर नहीं बल्कि बाहर भी अपरिमित है। इसमें सबसे बड़ी चुनौती उसे स्वयं के भीतर बैठी हिचकिचाहट को जीतना है, खुद की शक्ति को समझना है, अपनी कोरी भावुकता से बाहर आना है, माँ, बहू, बेटी बहन के किरदार से बाहर आना है, स्त्री-पुरुष के भेद से हट कर खुद को एक रचनाकार के रूप में स्वीकार करना है। वर्षों अँधेरे में रहने वाले की आँख उजाले में आकर आहिस्ता आहिस्ता ही खुलेगी। बाहरी संसार में पलने वाली पुरुष सत्ता, घर के भीतर की पुरुष सत्ता से भिन्न नहीं होती। स्त्री की अनभिज्ञता उसकी नैसर्गिक भावुकता से जुड़ कर दोगुनी हो जाती है। कई बार वो छली जाने को स्वयं प्रस्तुत होती है तो कभी सामने वालों के झूठ और छल छद्म से छली जाती है। अपने उद्देश्यों से इतर अनामंत्रित आयोजनों के जाल में फंसी वो न घर की रहती है न घाट की। उफ ! लाख-लाख आंसू रो पड़ती हूँ उनके लिए जिन्होंने बाहर निकलने का साहस जुटाया पर स्थितियों के जंगल में भटक गयीं। इन स्त्रियों को या तो पिंजरे में कैद कर पुनः वापस लाया जाता है या वहीं मृत्यु दंड दे दिया जाता है। यात्रा का ये दुखद समापन मात्र एक के लिए नहीं होता बल्कि कई अन्य पांवों की गति पर भी पूर्ण विराम लगा जाता है।

एक और प्रश्न यह कि स्त्रियों की रचनात्मकता पर अक्सर उंगली उठती है कि उनकी दृष्टि घर परिवार से निकल कर समाज, राजनीति, देश, विश्व तक नहीं पहुंचती उनके विषय सिर्फ घर परिवार या स्त्री विलाप (यही शब्द प्रयोग में लाया जाता है) या ज्यादा प्रेम तक ही सीमित होते हैं। मुझे हंसी आती है ऐसे वक्तव्यों पर और ऐसा कहने वालों की तंग-नजरी पर। एक तरफ तो आप उद्देश्यपूर्ण सृजन की बात करते हैं, अमानवीयता पर प्रश्न उठाने की बात करते हैं दूसरी तरफ जब स्त्रियों की कलम स्त्रियों सम्बंधित त्रासदियों को रेखांकित करती है तो आप रचनात्मकता को दो धड़ों में बाँट स्त्री रचना-पुरुष रचना बना देते हैं। बावजूद इसके महिला रचनाकारों ने समाज, देश, विश्व के सभी मुद्दों पर खुल कर चर्चा की है अपनी रचनाओं में। मुश्किल यह है कि आप की दृष्टि वहाँ तक नहीं पहुँच सकी और न जाना चाहती है। भावना तिवारी के एक शोध पत्र 'नवगीत में महिला रचनाकारों का योगदान' से कुछ महिला रचनाकारों के नाम आप सब तक पहुँचा रही हूँ जिन्होंने हर विषय पर अपनी कलम चलायी है-

डॉ शान्ति सुमन, राजकुमारी 'रश्मि', इंदिरा मोहन, पूर्णिमा वर्मन, शैल रस्तोगी, मधु प्रधान, डॉ यशोधरा राठौर, अंजना वर्मा, महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ कीर्ति काले, ममता बाजपेयी, इन्दिरा गौड़, डॉ मीना शुक्ला, संध्या सिंह, कल्पना रमानी, डॉ मालिनी गौतम, मधु शुक्ला, रजनी मोरवाल, डॉ प्रभा दीक्षित, अरुणा दुबे, शशि पाधा, उर्मिला 'उर्मि', शीला पांडे, सुशीला जोशी, मधु प्रसाद, मधु चतुर्वेदी, प्राची सिंह, चेतना पांडे, रंजना गुप्ता, गीता पंडित, शशि पुरवार, मानोशी चटर्जी, निशा कोठारी, सुनीता मैत्रेयी, आशा देशमुख, शशि शुक्ला, मंजू श्रीवास्तव, रश्मि कुलश्रेष्ठ, शीतल बाजपेयी, अनिता सिंह, गरिमा सक्सेना इत्यादि।

गीत लेखन के अतिरिक्त आलेख, आलोचना, सम्पादन, शोध कार्य आदि पर भी महिलाएँ पूरी सक्षमता के साथ अपने हस्ताक्षर दर्ज करती रहीं हैं। वर्तमान में भावना तिवारी, रंजना गुप्ता, शीला पाण्डेय अमिता दूबे, गरिमा सक्सेना आदि इन क्षेत्रों में भी गंभीरता से कार्य कर रही हैं घर-बाहर में सामंजस्य बैठाती, दोनों तरफ के वातावरण में पैठी नकारात्मकता से संघर्ष करती महिलायें अधिकांशतः अपराधबोध से भरी रहती हैं जैसे वो लेखन नहीं बल्कि किसी के अधिकारों के अपहरण या हत्या की दोषी हैं। कई स्थितियों में प्राथमिकता के चुनाव के समय, घूरती आँखों, भिंची मुट्ठी और बुदबुदाते होंठों से निकलने वाले अग्नि बाणों की हरकत 'हमें तो पता ही था' जैसे वाक्य स्पष्टतः जता जाते हैं कि स्वयं को प्राथमिकता देते ही वो अपराधी घोषित हो चुकी हैं।

खैर यह गृहस्थन से लेखन यात्रा का संक्षिप्त अनुभव है जिसे ईमानदारी से मैंने अपने पाठकों के साथ साझा किया। पिछले दोनों संग्रहों से इस संग्रह के गीतों का कथ्य, शिल्प, अनुभवजनित भाव बोध पाठकों को भिन्न व बेहतर मिलेगा ऐसी उम्मीद सौंपना चाहती हूँ।

प्रिय निशा कोठारी द्वारा चुने गये कुछ शीर्षकों में से 'आहटों के अर्थ' शीर्षक को अंतिम रूप से चुनने में सहायता की आशीष शर्मा जी ने। एक सार्थक चुनाव में मदद करने में आप दोनों की दिल से आभारी हूँ। जीवन का हर पल, एक आहट है, हर हलचल, चाहे वो मन की हो या बाहर की, एक आहट है किसी अन्य हलचल की। हर पल अगले किसी पल की किसी आहट को समेटे होता है। बस इन्ही आहटों के सही अर्थों को सुनने और गुनने में जीवन खर्च हो जाता है। अर्थों का सही या गलत अनुमान समय ही निश्चित करता है। उम्र के साथ अनुभव भी जुड़ते हैं और आहटों के अर्थ स्पष्ट होने लगते हैं। इन्हीं आहटों को गीतों में ढालने का प्रयास है मेरा।

इस यात्रा में अनेक मित्रों का विशिष्ट योगदान रहा हमेशा की तरह। आदरणीय योगेंद्र दत्त शर्मा जी, वेद शर्मा जी व जगदीश पंकज जी के शब्द प्रेरित करते रहे अच्छा लिखने के लिए। अनेक मित्रजन मानसिक सम्बल रहे। भावनात्मक साथ रहा आशीष शर्मा जी का जिनके मुझ पर किये गये विश्वास ने इस तीसरी किताब के लिये अवसर बनाये। दोनों बेटे स्पर्श और स्पंदन धूप में छतरी की तरह साथ रहे । माता-पिता के आशीर्वाद के बिना कुछ भी असंभव था।

पुस्तक के आवरण पृष्ठ को लेकर बेहद भावुक हूँ क्योंकि इसे बनाने का वादा जिस बच्ची ने मेरे से किया था दुर्भाग्य से आज वो हमारे बीच नहीं है किंतु उसकी और मेरी दोनों की योजना के अनुरूप तबस्सुम परवीन का चित्र मेरी पुस्तक पर उसकी अमिट स्मृतियों के रूप में अंकित रहेगा। तुम जहाँ भी हो तबस्सुम मेरा स्नेह और धन्यवाद तुम तक पहुंचे। मित्र निवेदिता श्रीवास्तव के शारदेय प्रकाशन को पुस्तक का काम सौंपते ही मैं निश्चिन्त हो गयी कि अब मेरा भार आधा हो चुका है।

आत्मकथ्य के समापन में महिलाओं के हौसले और लगन को एक दूसरे का सम्बल बनने के संदेश व आत्मिक शुभकामनाओं के साथ ये पंक्तियाँ सौंपती हूँ

"रास्तों को मरहलों को मंज़िलों को भूल जायें
खोल दें हर बंध अब उन्मुक्त हो कुछ गुनगुनायें
वक़्त की हर वेदना सम्वेदना की डोर थामे
तुम हमारे पास आओ हम तुम्हारे पास आयें"


सीमा अग्रवाल
सी-12 सिल्वर एंक्लेट
यारी रोड, वर्सेवा, अंधेरी पश्चिम
मुम्बई-400061
मोः 9810290517

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  1. काव्य-क्रम

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